और इक ग़ार है
और इस ग़ार में
एक सच्चा है और एक सच्चाई है
इक मोहब्बत है और एक हुब-दार है
बे-पनाह प्यार है
बे-पनाह प्यार है
जिस पे शाहिद है नूरानी फ़रमान भी
रब का क़ुरआन भी
बे-पनाह प्यार है
ज़ानू-ए-यार पर
यार-ए-फ़िल-ग़ार पर
दौलत-ए-दो-जहाँ
जल्वा-पैरा हुई
फ़ैज़-फ़रमा हुई
लेकिन उस ग़ार के कोने-खुदरे में मौजूद इक साँप से
ये तक़र्रुब का मंज़र न देखा गया
शोख़ ने डस लिया
साँप के ज़हर से ज़ब्त सिद्दीक़-ए-अकबर का टूटा मगर
साँप को क्या ख़बर ?
इस की तर आँख से
उन के रुख़्सार तक
नुक़रई आब का
महरम-ए-ख़्वाब तक
जो सफ़र हो गया
मो'तबर हो गया
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