अपने ग़म में, अपनी उल्फ़त में रुलाओ ज़ार-ज़ार
हुस्न-ए-गुलशन में सरासर है फ़रेब, ए दोस्तो !
देखना है हुस्न तो देखो 'अरब के रेग-ज़ार
हम ग़रीबों को मदीने में बुला लो, या नबी !
वासिता अहमद रज़ा का, दो जहाँ के ताजदार !
गर मुक़द्दर में मेरे दूरी लिखी है, या नबी !
काश ! फ़ुर्क़त में तेरी रोता रहूँ मैं ज़ार ज़ार
काश ! ख़िदमत सुन्नतों की मैं सदा करता रहूँ
अहल-ए-सुन्नत का सदा बन के रहूँ ख़िदमत-गुज़ार
हैं 'अली मुश्किल-कुशा साया-कुनाँ सर पर मेरे
ला फ़ता इल्ला 'अली, ला सैफ़ इल्ला ज़ुल्फ़िक़ार
मुस्तफ़ा वाली तेरे, 'अत्तार ! डर किस बात का
कार-गर होगा न तुझ पर दुश्मनों का कोई वार
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