आसमाँ देख के हैरान है रिफ़'अत तेरी
बाग़-ए-फ़िरदौस की सूरत में ये दीनी क़िल'आ
सय्यिदि हाफ़िज़-ए-मिल्लत ! है करामत तेरी
तू ने इस बाग़ को है ख़ून-ए-जिगर से सींचा
ता-क़यामत रहे आबाद ये जन्नत तेरी
नाज़िश-ए-'इल्म-ओ-'अमल, पैकर-ए-ज़ोहद-ओ-तक़्वा
थी ढली सुन्नत-ए-सरकार में सीरत तेरी
अपने बेगाने उठा पाएँ न तुझ पर ऊँगली
कितनी पाकीज़ा थी, बुल-फ़ैज़ ! तबी'अत तेरी
अपने हासिद को दिया है न कभी तू ने जवाब
ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ थी बस 'आदत-ओ-फ़ितरत तेरी
सब से बढ़ कर है यही तेरी विलायत की दलील
याद आता था ख़ुदा देख के सूरत तेरी
तेरे मज़हर हैं ये 'अल्लामा मुहम्मद अहमद
इन में आती है नज़र फ़िक्र-ओ-बसीरत तेरी
कासा-ए-दिल लिए हाज़िर है ये क़ासिम दर पर
इस पे हो जाए, शहा ! नज़र-ए-'इनायत तेरी
इस पे हो जाए, शहा ! नज़र-ए-'इनायत तेरी
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